मनुष्य की सुंदरता

 "न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः।"

(त्याग और श्रेष्ठ कर्म से ही मनुष्य अमरता प्राप्त करता है।)

भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जीवन के गूढ़ रहस्यों को उजागर किया है। गीता के अनुसार, मनुष्य की सच्ची सुंदरता उसके कर्मों और विचारों में निहित होती है, न कि उसकी बाहरी काया में। जिस प्रकार एक वृक्ष अपनी छाया और फल के कारण मूल्यवान होता है, वैसे ही मनुष्य अपने उत्तम विचारों और पुण्य कर्मों से श्रेष्ठ बनता हैं


सुंदरता का वास्तविक अर्थ

संसार में बाहरी सौंदर्य क्षणिक होता है, लेकिन जो सुंदरता विचारों और कर्मों में होती है, वह चिरस्थायी रहती है। गीता में कहा गया है कि व्यक्ति का आचरण और उसकी निःस्वार्थ सेवा ही उसे दूसरों के हृदय में स्थान दिलाती है।

गीता से प्रेरित श्लोक:

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
(हे अर्जुन, तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फल की चिंता मत कर।)

इस श्लोक का गूढ़ अर्थ यह है कि मनुष्य को अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए, न कि उनके परिणामों पर। जो व्यक्ति बिना स्वार्थ के, सत्य और धर्म के मार्ग पर चलता है, वही वास्तव में सुंदर कहलाने योग्य है।


सच्ची सुंदरता: मन और आत्मा की पवित्रता

भगवद गीता हमें सिखाती है कि मनुष्य को अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या और लोभ से दूर रहना चाहिए। जिस प्रकार स्वच्छ जल ही पीने योग्य होता है, वैसे ही शुद्ध विचारों वाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में सुंदर होता है।

श्रीकृष्ण का संदेश:

"विद्या विनय संपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिनः॥"

(ज्ञानी व्यक्ति विद्वान ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल में समानता देखते हैं।)

इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति की पहचान उसके ज्ञान, व्यवहार और विचारों से होती है, न कि उसके बाहरी स्वरूप या समाज में उसकी स्थिति से।


कर्म की महत्ता

गीता के अनुसार, कर्म ही व्यक्ति को महान बनाते हैं। सुंदरता की सच्ची परिभाषा वही है जो दूसरों के जीवन में प्रकाश फैलाए।

एक प्रेरणादायक शायरी:

"रूप और यौवन का क्या है, ये तो मिट जाएगा,
पर जो अच्छे कर्म करेगा, वो सदा याद आएगा।"*

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं भी यही शिक्षा देते हैं कि आत्मा अमर है, और बाहरी शरीर नश्वर। यदि कोई व्यक्ति अच्छे विचारों से युक्त है और समाज के हित में कार्य करता है, तो वही सच्चे अर्थों में सुंदर कहलाता है।


निष्कर्ष

गीता हमें सिखाती है कि असली सुंदरता हमारे विचारों और कर्मों में होती है। बाहरी आकर्षण तो समय के साथ समाप्त हो जाता है, लेकिन सच्चाई, दया और निःस्वार्थ सेवा हमेशा अमर रहती है। यदि हम जीवन में श्रीकृष्ण के उपदेशों का पालन करें, तो न केवल हम स्वयं सुंदर बन सकते हैं, बल्कि अपने समाज को भी सुंदर बना सकते हैं।

अंतिम श्लोक:

"यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।"
(जिस प्रकार बिना हवा के दीपक शांत जलता है, उसी प्रकार स्थिर मन और पवित्र हृदय वाला व्यक्ति ही सच्चे सौंदर्य का प्रतीक है।)

अतः हमें अपने जीवन में गीता के उपदेशों को अपनाकर, सुंदर विचारों और श्रेष्ठ कर्मों से अपनी असली सुंदरता को निखारना चाहिए।

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