पुण्य का अहंकार कभी ना करे
पुण्य का अहंकार: एक अनदेखा अभिशाप
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मनुष्य जीवन में पुण्य कर्मों का विशेष महत्व है। दया, परोपकार, सेवा, सत्य और धर्म के मार्ग पर चलकर हम न केवल आत्मिक शांति प्राप्त करते हैं, बल्कि समाज के लिए भी प्रेरणास्रोत बनते हैं। परंतु जब पुण्य करने के पश्चात मन में अहंकार आ जाता है, तो वह पुण्य भी अपना महत्व खो देता है।
पुण्य और अहंकार का द्वंद्व
पुण्य का सही अर्थ तभी सार्थक होता है जब वह नि:स्वार्थ भाव से किया जाए। जब कोई व्यक्ति दान-पुण्य करता है और फिर उस पर गर्व करने लगता है या दूसरों को नीचा दिखाने के लिए उसका प्रदर्शन करता है, तो वह पुण्य वास्तविक रूप से निष्फल हो जाता है।
अहंकार मनुष्य को धीरे-धीरे आध्यात्मिकता से दूर कर देता है। जब हमें अपने पुण्य कार्यों का घमंड हो जाता है, तो हम यह भूल जाते हैं कि वास्तविक पुण्य वही होता है जो नि:स्वार्थ रूप से किया जाए। अहंकार हमें इस भ्रम में डाल देता है कि हम श्रेष्ठ हैं और दूसरों से बढ़कर हैं, जबकि सच्चा पुण्य हमें विनम्र बनाता है।
धार्मिक ग्रंथों से शिक्षा
हमारे धर्मग्रंथों में भी पुण्य के अहंकार से बचने की शिक्षा दी गई है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि कर्म करो, परंतु फल की इच्छा मत रखो। यही सिद्धांत पुण्य कर्मों पर भी लागू होता है। यदि हम पुण्य करके उसका अहंकार पालते हैं, तो वह पुण्य नहीं, बल्कि हमारे अहंकार को बढ़ाने का साधन बन जाता है।
विनम्रता: सच्चे पुण्य का प्रतीक
सच्चे पुण्य का प्रभाव तभी होता है जब वह विनम्रता के साथ किया जाए। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद और अन्य महान संतों ने भी हमें यह सिखाया है कि सच्ची सेवा वही होती है, जो निस्वार्थ भाव से की जाए।
निष्कर्ष
पुण्य का अहंकार हमें आध्यात्मिक रूप से कमजोर बनाता है और हमारे द्वारा किए गए अच्छे कर्मों का प्रभाव समाप्त कर देता है। हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए कि पुण्य का असली उद्देश्य आत्मिक उन्नति और समाज की भलाई है, न कि स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझना। इसलिए, पुण्य करें लेकिन अहंकार से दूर रहें, क्योंकि विनम्रता ही सच्चे पुण्य की पहचान है।
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